ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान, जिन्हें प्यार से “बच्चा ख़ान” और सम्मानपूर्वक “सीमांत गांधी” कहा जाता है, भारतीय उपमहाद्वीप के उन महान स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे जिनकी जीवन यात्रा अहिंसा, समर्पण, और सामाजिक सेवा की मिसाल है। उनका जन्म 6 फरवरी 1890 को पेशावर की एक पठान किसान परिवार में हुआ था। बचपन से ही उनमें शिक्षा के प्रति गहरा लगाव था, और उन्होंने मिशनरी स्कूल में पढ़ाई की, जहां पठानों के बीच यह शिक्षा लेना क्रांतिकारी क़दम माना जाता था।
गांधीजी से हुई मुलाक़ात और अहिंसा का मार्ग
1919 में खलबली मचाने वाले रॉलेट एक्ट के खिलाफ आंदोलन में उनका परिचय महात्मा गांधी से हुआ। गांधीजी के अहिंसात्मक आंदोलन ने ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को अन्दर से झकझोर दिया। उन्होंने अहिंसा ही सबसे बड़ा हथियार माना और अपने पूरे जीवन में इसे कायम रखा। इसके बाद उन्होंने 1929 में “ख़ुदाई ख़िदमतगार” आंदोलन की स्थापना की, जो “भगवान के सेवक” कहलाता था। यह आंदोलन पठान क्षेत्रों में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ अहिंसात्मक और सामाजिक जागरण का प्रकाशस्तंभ बना।
सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय एकता के लिए संघर्ष
ख़ान साहब ने न केवल अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, बल्कि उन्होंने जाति, धर्म और क्षेत्र की दीवारें तोड़ने की कोशिश की। हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए वे सदैव समर्पित रहे। उन्होंने शिक्षा, स्वच्छता और महिला सशक्तिकरण को भी अपने आंदोलन का अभिन्न हिस्सा बनाया। उनका आंदोलन “रेड शर्ट मूवमेंट” के नाम से भी जाना गया, क्योंकि उनके अनुयायी लाल कुर्ती पहनते थे।
विभाजन का विरोध और जीवन का अंतिम चरण
जब भारत विभाजन की योजना बनी, तब ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने इसका कड़ा विरोध किया और संयुक्त, धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए संघर्ष करते रहे। उन्होंने अपने लोगों को स्वतंत्रता की नई राह दिखाई, लेकिन अपने जीवनकाल में अनेक बार जेलों और निर्वासन का सामना भी किया। 1987 में भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया।

विरासत
ख़ान साहब की विचारधारा आज भी शांति, अहिंसा, और सामाजिक एकजुटता का प्रेरणास्त्रोत है। उनके द्वारा स्थापित “ख़ुदाई ख़िदमतगार” की भावनाएं और संघर्ष स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अमर हैं। 20 जनवरी 1988 को उनका निधन हुआ, पर उनकी शिक्षाएं और आदर्श अमर रहे।
इस प्रकार, ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान एक ऐसे नेता थे जिन्होंने “दया में शक्ति है” के सिद्धांत को जीवन में अपनाया और दूसरों के लिए मिसाल कायम की। उनका जीवनंदेशा हमें सामाजिक सद्भाव और अहिंसा की ओर प्रेरित करता है।
यह कहानी है उस सीमांत गांधी की, जिसने अपने विश्वास और साहस से न केवल पठान समाज बल्कि पूरे भारत और पाकिस्तान के लिए एक नया सूरज उगाया.
Khan Abdul Ghaffar Khan की बचपन और तालीमी जिंदगी का खूबसूरत खाका इस प्रकार है:
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान का जन्म 6 फरवरी 1890 को पेशावर, पाकिस्तान के एक पठान परिवार में हुआ था। उनके परिवार में बहादुरी और आज़ादी के लिए संघर्ष की विरासत थी। उनके दादा और परिवार के सदस्यों का स्वभाव लड़ाकू था और वे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संगठित होकर लड़ते थे। बाल्यकाल में खान साहब के पिता बैराम खान एक शांत स्वभाव के और ईश्वरभक्ति में लीन रहने वाले व्यक्ति थे।
शिक्षा के प्रति उनके पिता की गहरी चिंता थी इसलिए उन्होंने खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार को एक मिशनरी स्कूल में दाखिला दिलवाया, जो उस समय पठान समाज में अस्वीकृत था। वहां खान साहब ने प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की, जो उनके जीवन के लिए कई नए विचारों और सामाजिक जागरूकता का द्वार खोलने वाली साबित हुई। बाद में उन्होंने अलीगढ़ भी जाकर पढ़ाई की, परन्तु कुछ कारणों से उन्होंने वहीं रहना पसंद किया।
उनकी तालीमी जिंदगी सिर्फ पुस्तकों तक सीमित नहीं रही, बल्कि वे समाज सेवा और गतिविधियों में भी लगे रहे। गर्मी की छुट्टियों में वे खाली बैठने के बजाय समाज सेवा में व्यस्त रहते थे। ये शिक्षा और सेवा का मेल बाद में स्वतंत्रता आंदोलन में अहिंसा और मानवता के सिद्धांतों को अपनाने में मददगार साबित हुआ।
ख़ान साहब ने अपने बचपन से ही शिक्षा को सबसे बड़ा हथियार माना, और यह शिक्षा उनके समाज को आगे बढ़ाने का माध्यम बनी। इसी से उन्होंने बाद में अहिंसात्मक स्वतंत्रता आंदोलन “ख़ुदाई ख़िदमतगार” की नींव रखी, जो पूरी दुनिया में शांति का प्रतीक बनी।
इस प्रकार, बचपन से ही खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान की शख्सियत में शिक्षा, समाज सेवा और अहिंसा का समन्वय था, जिसने उनकी पूरी जिंदगी को एक मिसाल बना दिया.


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